मानव सभ्यता के इतिहास में शायद यह पहली बार होगा कि दुनिया के करोड़ों बच्चे चाहकर भी स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। कोरोना संकट ने सेहत के साथ-साथ शिक्षण व्यवस्था को भी गहरी चोट दी है। हाल-फिलहाल इस स्थिति में तुरंत बदलाव की गुंजाइश नजर भी नहीं आती। वैसे तो जैसे-तैसे संपन्न व शहरी स्कूलों में ऑनलाइन कक्षाओं का आयोजन किया जा रहा है लेकिन एक बात तो तय है कि ऑनलाइन क्लास कभी स्कूली कक्षाओं का विकल्प नहीं बन सकती। खासकर भारत जैसे विविधता वाले पाठ्यक्रमों तथा आर्थिक विसंगतियों वाले देश में। एक स्वयंसेवी संगठन की रिपोर्ट बता रही है कि दुनिया में एक करोड़ बच्चे ऐसे होंगे जो कोरोना काल के बाद भी कभी स्कूलों का मुंह नहीं देख पायेंगे। आर्थिक संकट के चलते करोड़ों लोगों के रोजगार छिन गये हैं। स्कूल से पहले उन परिवारों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा है। बहरहाल, यह एक सत्य है कि फिलहाल जितने भी स्कूलों में संभव हो, ऑनलाइन कक्षाओं का ही विकल्प नजर आता है। हाल ही में मानव संसाधन मंत्रालय ने डिजिटल शिक्षा को छात्रों के अनुकूल बनाने के लिये दिशा-निर्देश जारी किये हैं, जिनका स्वागत ही किया जाना चाहिए। खासकर बच्चों की सेहत को ध्यान रखते हुए उनकी उम्र व कक्षा के हिसाब से ऑनलाइन पढ़ाई का समय निर्धारित किया गया है। मानवीय दृष्टिकोण से भी यह जरूरी है कि पढ़ाई के साथ-साथ यह भी ध्यान रखा जाये कि बच्चों की सेहत पर किसी तरह का प्रतिकूल असर न पड़े। लगातार कंप्यूटर या मोबाइल को लेकर बैठने से बच्चों की आंखों पर घातक प्रभाव पड़ सकता है। कोरोना काल में बच्चे वैसे भी कई तरह के मनोवैज्ञानिक दबावों से गुजर रहे हैं। इसमें परिवारों का आर्थिक संकट भी शामिल है। इसमें? छात्रों की जरूरतों की प्राथमिकताओं का भी ध्यान रखना जरूरी है। खासकर विद्यार्थियों के बीच असमानता को देखते हुए भी। जिसको संवेदनशील दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है।
दरअसल, कोरोना महामारी का आना और उससे बचाव के लिये लॉकडाउन लागू होने के तुरंत बाद इतना समय नहीं मिल पाया कि ऑनलाइन शिक्षा को योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ाया जाये। संपन्न तबके व शहरी क्षेत्रों के विद्यार्थियों के घरों में तो कंप्यूटर, मोबाइल व लैपटॉप तथा स्मार्टफोन उपलब्ध हो सकते हैं, लेकिन सरकारी स्कूल में पढऩे वाले गरीब तबके के बच्चों के लिये यह सहज उपलब्ध होना संभव नहीं है। लॉकडाउन के चलते करोड़ों लोगों के रोजगार या तो खत्म हो गये, या नामचारे को सिमट गये। ऐसे में बच्चों के लिए कंप्यूटर व स्मार्टफोन खरीदना आसान नहीं था। इस सबके बीच सौ में सौ लाने की आकांक्षा रखने वाली पीढ़ी का दबाव भी बच्चों पर हावी रहता है। निस्संदेह ऑनलाइन शिक्षा के विकल्प से कुछ हद तक विद्यार्थियों को शैक्षिक पाठ्यक्रम से जोड़ा जा सकता है मगर शैक्षणिक परिवेश में मिलने वाली परंपरागत शिक्षा जैसी बात तो संभव नहीं हो सकती। वैसे भी जैसे-तैसे स्कूलों ने ऑनलाइन शिक्षा की कवायद तो शुरू कर दी मगर शिक्षकों को भी नयी तकनीक के लिये पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं दिया जा सका। ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों में तो स्थिति और ज्यादा विकट बनी हुई है। बरसात के मौसम में अन्य कई तरह की समस्याएं सामने आती हैं। सवाल इंटरनेट का गुणवत्ता के साथ उपलब्ध होना भी एक चुनौती है। कई जगहों पर पेड़ों व घर की छतों पर सिग्नल की तलाश में चढ़े छात्रों के चित्र अक्सर समाचार पत्रों में नजर आये हैं। मजबूरी यह है कि शिक्षकों व छात्रों को अचानक नई तकनीक ?पर आधारित शैक्षणिक प्रक्रिया में शामिल होना पड़ा है जो कि परंपरागत शिक्षा प्रणाली से बिल्कुल भिन्न है। चिंता यह भी है कि स्मार्टफोन हाथ में आने के बाद विद्यार्थियों को ऑनलाइन गेम खेलने की लत न लग जाये। इंटरनेट पर प्रवाहित घातक सामग्री से उन्हें बचाने के लिये अभिभावकों को सतर्क रहना होगा।