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वाजपेयी की राजनीति को करीब से न देख पाने की बदनसीबी..

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साल 2002 में दूरदर्शन पर ’सर्व शिक्षा अभियान’ के तहत एक विज्ञापन देखा करते थे, जिसकी शुरुआत में अटल बिहारी वाजपेयी नजर आते थे। आज जब वह हमारे बीच नहीं हैं, तो उनका वही सौम्य चेहरा और आत्मविश्वास से लबरेज आवाज दिलो-दिमाग में गूंज रही है। उनका निधन एक सदी का अंत नहीं, बल्कि एक तरह की राजनीति का अंत है।
पापा अक्सर टीवी पर समाचार सुना करते थे तो बड़ी कोफ्त होती थी कि अब वह एक घंटे से पहले नहीं उठने वाले, लेकिन वाजपेयी जी की शख्सियत की तरफ एक तरह का खिंचाव ही था कि टेलीविजन पर उनके दिख भर जाने या उनकी आवाज सुनते ही दौड़कर टेलीविजन की ओर लपक पड़ने की आदत हो गई थी। उनके बारे में और जानने की जिज्ञासा घर कर गई थी तो कुरेद-कुरेद कर घर या स्कूल में पूछने लगती। यह हमारी पीढ़ी की बदनसीबी है कि जब हम राजनीति को समझने लगे, तब वह सक्रिय राजनीति से दूर होते चले गए।
आज के समय में ऐसी कौन सी राजनीतिक हस्ती हैं, जिनके पुराने भाषण युवा पीढ़ी यूट्यूब पर ढूंढ़-ढूढ़कर सुनती है। ऐसी कौन सी हस्ती हैं, जिनकी कविताएं और वक्तव्य आज भी हम बड़े चाव से पढ़े जा रहे हैं। ऐसी कौन सी हस्ती है, जिन्हें लेकर पक्ष-विपक्ष की सीमाएं मिट गई हैं? जवाब एक ही है-अटल बिहारी वाजपेयी।
अमूमन सोचती हूं कि एक नेता, राजनेता कैसे बनता है, इसका सबसे सटीक उदाहरण वाजपेयी हैं। अपने मूल्यों और आदर्शो से समझौता न करते हुए प्रधानमंत्री के पद से त्यागपत्र देने की हिम्मत क्या आज के परिदृश्य में कोई प्रधानमंत्री कर सकता है! वह एक कुशल वक्ता थे और शब्दों पर उनकी कितनी जबरदस्त पकड़ थी, वह उनके भाषणों से साफ झलकती है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में उनका हिंदी में दिया भाषण आज भी गर्व की अनुभूति देता है।
संसद में जब वाजपेयी जी बोलते थे तो उनके धुर विरोधी भी उन्हें सुनना पसंद करते थे। उन्होंने संसद में एक बार सोनिया गांधी के वक्तव्य का जिस अंदाज में विरोध किया था, वह सुनकर कोई भी उनकी वाक्शैली का कायल हुए बिना नहीं रह सकता।
आज जब संसद में पक्ष-विपक्ष के हंगामे और आरोप-प्रत्यारोप के घटिया दौर सुनने को मिलते हैं तो अटल जी द्वारा संसद में स्थापित वह संयम और धैर्य बरबस याद आता है, जब वह विपक्षी सांसदों को धैर्य से सुनते थे और धैर्य और मर्यादा के दायरे में ही उसका माकूल जवाब भी देते थे। यकीनन, आज संसद में इस व्यवहार को सीखने की जरूरत है, ताकि सदन में पक्ष-विपक्ष की इस कुत्ते, बिल्ली सरीखी झड़प में सदन की कार्यवाहियों में लगने वाली आम जनता की खून-पसीने की कमाई बर्बाद न हो।
वाजपेयी जी अपने साक्षात्कारों में अमूमन कहा करते थे कि वह शुरू से ही पत्रकार बनना चाहते थे, लेकिन दुर्भाग्य से राजनीति में आ गए। एक पत्रकार होने के साथ कह सकती हूं कि यदि वह पत्रकारिता में होते तो आज के पेड न्यूज और फेक न्यूज के दौर की पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों के चेहरे पर एक करारे तमाचे की तरह होते।
जवाहरलाल नेहरू ने एक बार वाजपेयी जी को लेकर भविष्यवाणी की थी कि यह शख्स एक दिन आगे चलकर देश का प्रधानमंत्री बनेगा..। सचमुच वह प्रधानमंत्री बना..एक आदर्श प्रधानमंत्री, जिसकी आज के दौर में बहुत जरूरत है।

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