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2019 के पहले एससी/एसटी एक्ट बिल सियासी बिसात पर कोई नई चाल है जिसका फायदा हर दल उठाना चाहता है. 2014 का लोकसभा चुनाव दलित राजनीति के लिये बहुत मायने रखता है जिसमें सारे समीकरण ध्वस्त करते हुये बीजेपी-एनडीए ने आरक्षित सीटों पर कब्जा तो जमाया ही वहीं बहुजन समाज की सबसे बड़ी नेता मायावती की पार्टी बीएसपी का खाता तक नहीं खुला. इस चुनाव में बीजेपी को सभी जातियों ने भरपूर समर्थन दिया. यही हाल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिला जहां 300 से ज्यादा सीटें जीतकर बीजेपी ने सभी जातिगत समीकरण ध्वस्त कर दिये. बीजेपी को गैर-जाटवों के साथ-साथ जाटवों के भी वोट मिले. लेकिन 2019 का चुनाव इस बार पीएम मोदी को सत्ता विरोधी लहर के साथ लड़ना है और साथ में विपक्षी दलों का गठबंधन भी तगड़ी चुनौती देने की तैयारी में है. बीजेपी को इस सच्चाई का भी सामना करना पड़ेगा कि उसके शासनकाल में दलितों के खिलाफ मारपीट की भी घटनाएं सामने आई हैं. गुजरात के ऊना से लेकर, राजस्थान और उत्तर प्रदेश-बिहार में भी ऐसी घटनाएं हुई हैं. इन घटनाओं से बीजेपी के खिलाफ अच्छा-खासा माहौल बना है. भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा ने भी दलितों के बीच दूर तक संदेश दिया. आरएसएस एक ओर जहां ‘सामाजिक समरसता’ की बात तो करता है लेकिन सदियों से चली आ ही जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ कोई प्रभावी रुख अपनाने के बजाये ‘मध्यममार्गी’ नीति अपनाता रहा है. विरोधी उसको ‘ब्राह्मणवादी संगठन’ कहकर निशाना भी साधते हैं. दरअसल इस मामले में आरएसएस चुप्पी साधकर दोनों पक्षों को अपने पाले में लाने की कोशिश करता है.पीएम मोदी खुद को हमेशा पिछड़ी जाति का बताते रहे और आरएसएस की चुप्पी हमेशा सवर्णों को रास आती रही. लेकिन एसएसी/एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने बीजेपी को दो राहे पर लाकर खड़ा कर दिया जहां उसके लिये कोई न कोई फैसला लेना जरूरी था क्योंकि किसी एक पक्ष का वोट लेकर कम से कम 2019 का चुनाव तो नहीं जीता जा सकता है. उसने तुरंत ही संशोधित बिल संसद में पेश कर दिया. बीजेपी के रणनीतिकारों को लगता है कि इससे दलित भी उसके पाले में बड़ी संख्या में आ जाएंगे और सवर्ण-बनिया तो उसका परंपरागत वोटबैंक ही हैं. लेकिन इस बिल को लेकर सवर्णों के बीच नाराजगी है. उत्तर प्रदेश से सांसद कैलाश मिश्र भी इस बिल को सामाजिक विघटन का कारण बता चुके हैं. वहीं अब बीजेपी के कुछ नेताओं को भी लगने लगा है दांव उल्टा पड़ता दिखाई दे रहा है. मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सीएम शिवराज सिंह चौहान का विरोध शुरू हो गया. 6 सितंबर को सवर्णों को भारत बंद का ऐलान कर डाला. कुल मिलाकर बीजेपी के कोर वोटर ही सोशल मीडिया, सड़कों और चौराहों पर विरोध में हैं. फिर सवाल इस बात का है कि आरएसएस या बीजेपी पिछले तीन सालों में पिछड़ों और दलितों की राजनीति क्यों कर रही है? हो सकता है कि बीजेपी-आरएसएस का मानना हो कि सवर्ण वोटबैंक कम से कम उसे छोड़ कर जाने से रहे और उनके वोट का थोड़ा बहुत नुकसान हो भी जाए और बदले में दलितों का हितैषी बनकर एक बड़ा हिस्सा अपने पाले में कर लिया जाए तो इसमें कोई बुराई नहीं है, बड़ा फायदा ही है. यहां पर एक बात और भी गौर करने वाली है एससी/एसटी एक्ट पर संशोधन का फैसला सुनाने वाले जस्टिस आदर्श गोयल को राष्ट्रीय हरित अभिकरण यानी एनजीटी का प्रमुख बना दिया गया. इतना ही नहीं एनडीटीवी को सूत्रों से पता चला है कि गृह मंत्रालय राज्यों को यह भी सलाह जारी कर सकता है कि वह इस कानून को ‘जिम्मेदारी’ से इस्तेमाल करे. वहीं सवर्ण नेताओं को भी अपने समर्थकों को समझाने के लिये कहा गया है