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क्या लखीमपुर खीरी में भी हाथरस जैसी गलती हो गई?

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Lakhimpur Kheri Violence: उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में 9 लोगों की मौत के बाद प्रशासन नें नेताओं के लखीमपुर खीरी जाने पर रोक लगा दी थी. रोक लगते ही सियासत तेज हो गई. नेता धरने पर बैठने लगे. कई नेताओं को हिरासत में ले लिया गया. कई बड़े नेताओं को नजरबंद कर दिया गया. इस तरह की घटनाओं ने विपक्ष को सियासत के लिए मुफीद ईंधन दे दिया. 3 दिन बाद सरकार को समझ में आया कि इस तरह की हिरासत से नेताओं को ही फायदा हो रहा है. सरकार नें तुरंत प्रियंका गांधी को रिहा कर दिया. दूसरे नेता भी रिहा किए जाने लगे. दिल्ली से विमान  से आए राहुल गांधी को भी एयरपोर्ट पर किसी ने नहीं रोका.

याद करिए कुछ इस तरह के प्रशासनिक फैसले हाथरस केस में भी लिए गए थे. मीडिया को कई दिनों तक पीड़ित के घर जाने से रोका गया. नेताओं को भी रोका जाने लगा. बवाल लगातार बढ़ता जा रहा था. वहां भी 3-4 दिन में सरकार को ये अहसास हो गया कि उनका ये फैसला उन्हीं को नुकसान पहुंचा रहा है. सरकार ने प्रशासन के फैसले को बदल दिया और सभी को पीड़ित के घर जाने की इजाजत दे दी. कुछ दिन बाद ये बवाल शांत हो गया. अब सवाल ये उठता है कि लखीमपुर खीरी प्रशासन और पुलिस अमले ने क्या हाथरस से कोई सीख नहीं ली? अगर लखीमपुर में नेताओं को बिना समर्थकों के प्रशासन पीड़ितों के घर ले जाया जाता तो शायद इतना बड़ा सियासी बवाल ना मचता.

‘लोकतंत्र खतरे में’

‘लोकतंत्र खतरे में’ जैसे आरोप सरकार पर ना लगते और ना ही विपक्ष को अपनी सियासत करने के लिए ईंधन मिल पाता. लोगों का भी सरकार पर भरोसा बढ़ता. लोगों ने तीन दिनों तक टीवी स्क्रीन पर नेताओं का गिरफ्तारी ड्रामा देखा, पुलिस की सख्ती देखी. यहां लोगों के बीच एक विरोधाभास उनके जहन में जरूर उठ रहा होगा. सरकार आरोपी मंत्री के बेटे से पूछताछ करने की जहमत भी नहीं उठा रही है और दूसरी तरफ विपक्षी नेताओं को रोकने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है. शायद सरकार इस मास साइकोलोजिकल फैक्टर को खत्म कर सकती थी यानी अगर रणनीतिक तौर पर देखें तो ये बात साफ समझ में आती है यहां सरकार के सलाहकार और प्रशासनिक अफसरों की गलत सलाह और फैसलों ने सरकार को विपक्ष के कटघरे में खड़ा कर दिया.

अगर यही मंजूरी जो 3 दिन बाद दी गई, पहले दिन ही दे दी जाती तो शायद सरकार को इतने विपक्षी हमलों का शिकार ना होना पड़ता. पुलिस भी इन तीन दिनों में जांच की तेजी दिखा सकती थी. हत्या के आरोपी नेताओं और उनके समर्थकों से कम पूछताछ कर सकती थी. हत्या के आरोपी किसान उपद्रवियों पर भी कार्यवाही कर सकती थी. मौके से सबूतों को इकट्ठा कर सकती थी तो शायद लोगों का भरोसा भी पुलिस और प्रशासन के पक्ष में होता. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. बल्कि प्रदेश के अलग-अलग जिलों में इंटरनेट बंद करना, जिलों की सीमाओं पर भारी पुलिस बल तैनात कर देना और नेताओं को नजरबंद करने जैसे फैसले लिए जाने लगे.

इन फैसलों से लगातार सरकार और प्रशासन के खिलाफ राजनीतिक माहौल बनने लगा. आखिर 3 दिन बाद सरकार ने अपने तथाकथित गलत फैसले को बदला और सारे नेताओं को पीड़ितों के यहां जाने की इजाजत दे दी. इस इजाजत से विपक्ष को सियासत के लिए किसी नए ईंधन की तलाश करनी पड़ेगी क्योंकि उनकी लोकतांत्रिक मांग को सरकार ने अब मान लिया है. अब इस नाम पर उनके विरोध जनता के गले नहीं उतरेगा.

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