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ममता ही नहीं, इन नेताओं ने भी की राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर चमकने की कोशिश

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Mamata Vs Congress: पश्चिम बंगाल चुनाव (West Bengal Election) में मिली जबरदस्त जीत से उत्साहित मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर छाने की कोशिश में लगी हुई हैं. उन्होंने हाल ही में कहा था कि BJP को हराने के लिए विपक्ष को एकजुट होना होगा. राजनतीक विश्लेषक इस संबंध में कहते हैं कि ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के लगातार विपक्षी नेताओं को एकजुट होने और यूपीए को नकारने के पीछे वजह उनकी महत्वकांक्षा है. वो ऐसा इसलिए कर रही हैं जिससे कि विपक्षी दल उन्हें अपना नेता मान लें. 

ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने एनसीपी नेता शरद पवार (Sharad Pawar) से भी हाल ही में मुलाकात की थी. इस दौरान पवार ने ये तो माना था कि BJP को हराने के लिए विपक्ष को एकजुट होना चाहिए, लेकिन उन्होंने इस पर कुछ भी नहीं कहा कि इसमें कांग्रेस के बिना कुछ हो सकता है. एनसीपी महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार का हिस्सा है. ममता इकलौती ऐसी राजनेता नहीं हैं, जिन्होंने एक बड़ी जीत हासिल कर राष्ट्रीय राजनीति में चमकने की कोशिश की हो. इससे पहले कई क्षेत्रीय दलों के लोकप्रिय नेताओं ने इस तरह की कोशिश की थी. इन नेताओं को लगने लगा था कि उनकी बड़ी जीत, उन्हें राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर ले जा सकती है. इन नेताओं में नीतीश कुमार (Nitish Kumar), अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) से लेकर एनटी रामाराव (NT Rama Rao) और चंद्रबाबू नायडू (Chandrababu Naidu) भी शामिल हैं, जिन्हें एक समय में लगने लगा था कि वो राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा उलटफेर कर सकते हैं. 

आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव (Delhi Assembly Election) में कांग्रेस और बीजेपी को बाहर कर अपने आपको राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करने की कोशिश की. सबसे खास बात ये रही कि केजरीवाल (Kejriwal) खुद को बड़ा राष्ट्रीय राजनेता मानने लगे थे कि उन्होंने पीएम मोदी को ही 2014 के चुनाव में वाराणसी से चुनौती दे डाली थी. पंजाब में भी AAP ने पैर पसारे, लेकिन उस तरह की सफलता नहीं मिली. आप की कोशिश आगामी विधानसभा चुनावों में भी यूपी उत्तराखंड, 
गोवा में पूरे दमखम से लड़ने की है.  

ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की बात करें तो TMC मेघालय में बड़े विलय के बात वहां मुख्य विपक्षी दल है. त्रिपुरा में भी पार्टी ने खुद को विस्तार देने की कोशिश की. गोवा में टीएमसी की एंट्री ने चुनाव को रोमांचक कर दिया है. कई अन्य पार्टियों के पुराने नेताओं को भी TMC ने अपने पाले में ले लिया है. राजनीतिक विश्लेषकों की राय के मुताबिक कई राजनेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर छाने में कामयाबी जरूर मिली, लेकिन उस वक्त की राजनीतिक परिस्थितियों ने उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित कराया. चाहे मोरारजी देसाई हों, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर और एचडी देवगौड़ा भी देश के प्रधानमंत्री उस सूरत में बने, जब देश के राजनीतिक गलियारों में बड़ा जोड़-घटाव हुआ.

नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का उदाहरण यहां देना इसलिए बेहद अहम है, क्योंकि वो ही इकलौते ऐसे राजनेता रहे हैं जो क्षेत्रीय राजनीति से निकलकर देश की राजनीति में छाने में कामयाब रहे हैं. इसके पीछे एक ये अहम कारण है कि वो किसी क्षेत्रीय दल के नेता नहीं, बल्कि देश की राष्ट्रीय पार्टी भारतीय जनता पार्टी से थे. हर राजनेता राजनीति के शीर्ष पर खुद को ले जाने की कोशिश भरपूर करता है. इसमें कोई खराब बात नहीं है, लेकिन निजी आकांक्षाओं को  मुकाम तब मिल पाता है, जब देश में परिस्थितियां आपके अनुकूल हों. 

कब-कब हुई ऐसी कोशिश

आंध्र प्रदेश का जब बंटवारा नहीं हुआ था उस वक्त एनटी रामा राव ने आंध्र प्रदेश में बड़ी जीत हासिल की थी. वो अपनी जीत से इस कदर खुश हुए कि उन्होंने अपनी पार्टी का नाम बदलकर भारत देसम पार्टी रख दिया था. हालांकि एनटी रामा राव को झटका उनके ही दामाद ने दिया और तख्तापलट करके राजनीतिक ताकत अपने हाथ में ली. उन्होंने भी भारी जीत हासिल की और राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ने का प्रयास किया, लेकिन वो इसमें कामयाब नहीं हो सके. लालू यादव, मुलायम सिंह यादव ने भी राष्ट्रीय राजनीति में छाने की एक दफा कोशिश की थी, लेकिन वो केंद्रीय मंत्रिमंडल में तो शामिल हुए, लेकिन प्रधानमंत्री बनने का उनका सपना साकार नहीं हो सका.

विपक्षी फ्रंट बनने का इतिहास देखें तो साल 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा बना. इस मोर्चे में दो क्षेत्रीय नेताओं को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला. जिसमें विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर रहे. मोर्चा बनाने वाले एनटीरामा राव ही थे. साल 1996 के जब चुनाव आए तो बिखरे हुए राष्ट्रीय मोर्चा को समेटने के लिए नया मोर्चा बनाया गया, ये था यूनाइटेड फ्रंट. इस मोर्चे को कांग्रेस का समर्थन मिला. शुरुआत में ज्योति बसु से कहा गया कि वो प्रधानमंत्री बन जाएं, उनके इनकार के बाद पूर्व पीएम वीपी सिंह से प्रधानमंत्री बनने को कहा गया, लेकिन उन्होंने भी इनकार कर दिया.

इसके बाद लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, एम करुणानीति भी पीएम पद की रेस में आ गए थे, हालांकि बाद में एचडी देवगौड़ा को पीएम बनने का मौका मिला. हालांकि इस मोर्चे को भी कांग्रेस ने समर्थन दिया था. कांग्रेस के समर्थन हटाते ही देवगौड़ा को हटना पड़ा और इंद्रकुमार गुजराल पीएम बने.

इन सबको कामयाबी न मिलने की वजह किसी एक बड़ी पार्टी का सपोर्ट न होना है. भले ही कांग्रेस की स्थिति आज की स्थिति में कुछ भी हो, लेकिन उसका वोट शेयर अभी भी इतना है कि किसी भी क्षेत्रीय दल के पास इतना वोट शेयर होना संभव नजर नहीं आता. क्षेत्रीय दलों के पास अपने-अपने राज्यों में तो मजबूत वोट बैंक है, लेकिन राज्यों से बाहर उनका कोई बहुत बड़ा प्रभाव नहीं है. ऐसे में कांग्रेस के बिना ममता की राष्ट्रीय राजनेता बनने की कोशिश कितनी कामयाब होगी, ये आने वाला वक्त ही बताएगा.

 

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