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700 साल पुराने संत के हाथ पंजाब में सत्ता की चाभी? जाने कैसे बदल रहे हैं समीकरण

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Punjab Assembly Election 2022: 15वीं शताब्दी के संत रविदास की आध्यात्मिक सीखें आज भी समाज को नया रास्ता दिखा रही हैं. लेकिन इस बार पंजाब में सियासी रास्ता भी संत रविदास से ही होकर निकलेगा. वैसे तो हर साल संत रविदास जयंती श्रद्धालु पूरे जोर शोर से मनाते हैं लेकिन जगतगुरु संत रविदास की इस साल की जयंती के सियासी मायने बन गए हैं.

संत रविदास की महिमा ऐसी थी कि उनसे प्रभावित होकर कई राजा उनके शिष्य बन गए थे. अब 700 साल बाद कई राजनेता संत रविदास के शिष्य नजर आते हैं क्योंकि संत रविदास पंजाब में सत्ता की चाभी बन गए हैं. इस पूरे सियासी संदर्भ को समझिए. पंजाब को देश की दलित कैपिटल कहा जाता है. क्योंकि यहां दलितों की काफी ज्यादा आबादी है. पंजाब में दलितों की आबादी 32% के आसपास है.

जिसमें 60% सिख हैं और 40% हिंदू हैं. पंजाब के 4 जिले शहीद भगत सिंह नगर, मुक्तसर साहिब, फिरोजपुर और फरीदकोट में दलितों की आबादी 42% से भी ऊपर है. सियासी आंकड़ों की बात करें तो पंजाब में विधानसभा की कुल 117 सीटें हैं, जिनमें से 57 सीटों पर दलित वोटरों का प्रभाव माना जाता है.

चन्नी इसलिए हैं कांग्रेस की पसंद

पंजाब में दलितों की ज्यादा जनसंख्या और आधी से ज्यादा सीटों पर प्रभाव होने की वजह से ही कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी पर दांव खेला है.. पहले जब कैप्टन को हटाना पड़ा तो चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया… जो पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री बने… फिर जब चुनावों के दौरान मुख्यमंत्री घोषित करने की बारी आई तो कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी पर ही दांव खेला… और इसके पीछे दलित वोटों को ही वजह बताया जा रहा है.

पंजाब में बदल रहे हैं समीकरण ?

अभी तक दलितों को कांग्रेस का वोटबैंक माना जाता था. लेकिन पिछले चुनावों से कांग्रेस के इस वोटबैंक में आम आदमी पार्टी ने भी सेंध लगाई है. 2017 के पंजाब चुनाव की बात करें तो कांग्रेस को 47% दलितों के वोट मिले तो वहीं शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी के गठबंधन को 25% दलित वोट मिले… आम आदमी पार्टी के गठबंधन को 24% और बाकियों को 4% दलितों ने वोट किया था. मतलब इस बार पंजाब में दलित वोटर भी बंट सकता है और ये कांग्रेस के लिए बड़ा खतरा है.

पंजाब राजनीति से दलित क्यों गायब ?

पंजाब में  दलित वोटर सत्ता की चाभी तो बनते हैं लेकिन उनका कभी राजनीतिक दबदबा नहीं बन पाया . यही वजह है कि पंजाब के कांशीराम को अपनी राजनीति उत्तर प्रदेश में आकर करनी पड़ी… कांशीराम पंजाब में दलितों को एकजुट करके नहीं रख पाए. लेकिन उनकी राजनीति यूपी में आकर सफल हुई.

कुल मिलाकर बीजेपी, कांग्रेस , शिरोमणि अकाली दल, आम आदमी पार्टी सभी की कोशिश है कि इस बार पंजाब चुनाव में दलित वोटरों का साथ मिले, क्योंकि सियासी बीजगणित में ये तो तय हैं कि दलित प्रमेय जिसने साथ लिया, उसी के सिर सजेगा सत्ता का ताज.

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