अंतरराष्ट्रीय

श्रीलंका से यूरोपीय देशों तक, कोरोना काल में छोटे मुल्कों को कर्ज के जाल में यूं जकड़ रहा चीन

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China Loan Strategy: कोरोना के कारण दुनिया में घिरा चीन अपना शिकंजा कसने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा. भारत जैसे बड़े देश के साथ लगी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनातनी हो या लिथुआनिया, श्रीलंका और निकारागुआ जैसे छोटे मुल्कों पर जोर आजमाइश. चीन ने हर मोर्चे पर अपने राजनीतिक हितों के लिए दांव-पेच तेज कर दिए हैं.

चीन की चालों से चिढ़ का ही नतीजा है कि बीते हफ्ते पूर्वी यूरोपीय देश लिथुआनिया के विदेश मंत्री गैब्रियल लैंडबर्गिस ने सबको आगाह किया है कि चीन सोची समझी रणनीति के तहत आर्थिक हमले कर रहा है. ताइवान को समर्थन से नाराजगी के नाम पर चीन की ऐसी कार्रवाई पूरे यूरोप के लिए चेतावनी है. उन्होंने कहा कि चीन अपने बाजार को खोलकर पहले देशों को अपने पर निर्भर बनाता है और फिर अपना राजनीतिक एजेंडा थोपकर सप्लाई लाइन रोक देता है.

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ध्यान रहे कि लिथुआनिया से ताइवान की नज़दीकी से तिलमिलाए चीन ने इस यूरोपीय देश की कंपनियों के उत्पाद फ्रीज कर दिए. चीन की इन पाबंदियों ने लिथुआनिया के निर्यात को भी प्रभावित कर दिया है. ज़ाहिर है यह सबूत है कि चीन की इच्छा और इशारे के खिलाफ चलने वाले मुल्क को खामियाजा भुगतना होगा. 

यही वजह है कि भारत के पड़ोस में मौजूद द्वीप देश श्रीलंका भी तनाव में है. श्रीलंका पर चीन का भारी-भरकम कर्ज़ है. विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि श्रीलंका पर 50 अरब डॉलर से अधिक के कर्ज का बोझ है. श्रीलंका के सिर पर अगर किसी एक देश का सबसे अधिक कर्ज है तो वो चीन का है. श्रीलंका पर चीन की 3.38 अरब डॉलर की देनदारी है. वहीं कोलंबो पर दबाव है कि इस कर्ज़ के एक बड़े हिस्से को इसी साल चुकाए. 

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ज़ाहिर है, पर्यटन की बड़ी हिस्सेदारी वाली श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था को कोरोना ने खासा झटका दिया है. ऐसे में उसकी आमदनी घटी है और कर्ज अदायगी की क्षमता भी कम हुई है. ऐसे में चीन की कोशिश हिन्द-प्रशांत की रणनीतिक बिसात पर खासी अहमियत रखने वाले श्रीलंका को अपने पाले में रखने की है.

 खासकर ऐसे में जब अगस्त 2020 को सत्ता में आई महिंदा राजपक्षे सरकार भारत के साथ संबंधों को खासी अहमियत दे रही है. आर्थिक मुश्किलों के बीच ही श्रीलंका ने वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे को भारत भेजा था जहां करंसी स्वैप समझौते समेत कई मुद्दों पर बात हुई थी.

जानकारों के मुताबिक चीन की चेक बुक डिप्लोमेसी और उसके नव-उपनिवेशवादी निशान सबके सामने आ गए हैं. पूर्व राजनयिक अनिल त्रिगुणायत के मुताबिक चीन एक बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसके पास धन मौजूद है. ऐसे में वो इस धनबल का इस्तेमाल कर किसी विकासशील देश में जाकर वहां सस्ता कर्ज़ देता है. वहीं कर्ज का बोझ बढ़ने पर वहां एसेट को टेकओवर कर लेता है. ज़ाहिर तौर पर दुनिया के विकासशील और खासतौर पर छोटे देशों के लिए यह बड़ी चुनौती बन रहा है. 

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हिन्द प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका खासी दिलचस्पी ले रहा है. साथ ही ताइवान के मुद्दे को भी तूल देने से परहेज़ नहीं कर रहा है. हालांकि इस मामले पर त्यौरियां चढ़ा रहा चीन जहां लिथुआनिया पर आंखें तरेर रहा है. वहीं उसने अमेरिका के पड़ोसी अल सल्वाडोर और निकारागुआ को ताइवान से अलग कर दिया है. बीते दिनों निकारागुआ ने जहां ताइवान को दी गई मान्यता खत्म कर वन चाइना नीति को स्वीकार किया है. इतना ही नहीं दक्षिणी अमेरिकी देश निकारागुआ ने ताइवान से खाली कराए दूतावास को बाकायदा चीन के हवाले कर दिया. 

यह सीधा संदेश है अमेरिका समेत उन मुल्कों के लिए जो लोकतंत्र के साथ खड़े होकर चीन को अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुरूप चलने की नसीहत देना चाहते हैं. चीन के यह तेवर स्वाभाविक तौर पर नए टकराव की भी ज़मीन बना रहे हैं. ऐसे में भारत के लिए जहां कहीं के पड़ोसी देश होने के नाते चिंताएं हैं. वहीं श्रीलंका, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश जैसे कमज़ोर अर्थव्यवस्था वाले विकासशील देशों और भारत के पड़ोसी मुल्कों में ड्रैगन के कर्ज का कसता फंदा खासी चिंता का सबब है.

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