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राजधानी लखनऊ कभी त्योहारों की शान समझे जाने वाले मिट्टी के बर्तनों का व्यवसाय वर्तमान समय में संकट के दौर से गुजर रहा है
नए जमाने की हाईटेक टेक्नोलॉजी ने मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगरों के चाक को रोक दिया दीपावली हो या करवा चौथ हो अथवा कोई अन्य त्यौहार ये बर्तन तैयार करने वाले कारीगरों के चाक से बने बर्तनों के बिना पूरे नहीं होते कारीगर के हाथों से बने दीपक दीपावली में दीपों की रोशनी देखकर दिल खुश हो जाता था लेकिन बदलते समय और हाईटेक टेक्नोलॉजी ने सभी को आकर्षित कर लिया जिसकी वजह से बर्तन बनाने वाला कारीगर वर्तमान समय में उपेक्षा का दंश झेल रहा है आज बाजार पहुंचने पर मिट्टी के बर्तनों के बजाय दुकानों पर चाइनीज झालरों की चमक ने दीपों की रोशनी को ग्रहण लगा दिया सोसीर खेड़ा गांव निवासी लक्ष्मीनारायण कुम्हार बताते हैं कि बाजार में मिट्टी के बर्तन खरीदने वाले कम ही रह गए हैं ज्यादा बनाने से फायदे ही क्या शहद से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक चाइनीज दीये की मांग दिन पर दिन बढ़ती जा रही है महीनों पहले दिन-रात मेहनत करके भी वाजिब दाम नहीं मिलते और ना ही खरीददार महंगाई के चलते आज के समय में लोग मिट्टी से बने बर्तन उतना पसंद नहीं करते विदेशी कंपनियों में निर्मित बिजली से जलने वाले उपकरणों को हमारे भारत में उतार कर हजारों करोड़ रुपए कमाते हैं और हमारे यहां के होनहार कारीगर भुखमरी के कगार पर हैं
मिट्टी के बर्तन बनाने वाले बुजुर्ग शिव राम बताते हैं कि अब वो समय गया जब लोग एक महीना पहले ही मिट्टी से बने दीप जलने लगते थे मोहल्लों में रौनक आ जाती थी और कुम्हारो में भी होड़ लगी रहती थी कि कौन कितनी कमाई करेगा लेकिन अब तो खरीदार ही नजर नहीं आते हैं मिट्टी के बर्तन बेचकर परिवार चलाने वाले रामबहादुर बताते हैं कि महंगाई की मार इस कदर पडी की मिट्टी भी इससे अछूते नहीं रही कच्चा माल भी महंगा हो गया दिन रात मेहनत करने के बावजूद हमें मजदूरी के रूप में 70 से ₹80 कमाई हो पाती है इससे परिवार का पालन पोषण करना मुश्किल है मेहनत करने के बावजूद कुम्हार अपना पैतृक व्यवसाय बंद करने को मजबूर है क्योंकि इतने पैसों में परिवार चलाना मुश्किल सा हो गया है
मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगर भुखमरी के कगार पर
मिट्टी मिलना भी हो गया है मुश्किल
कुम्हार लक्ष्मी नारायण का कहना है कि अब तो मिट्टी मिलना भी मुश्किल हो गया क्योंकि खनन माफिया मिट्टी निकालकर तालाब बना देते हैं जिसकी वजह से बारिश में पानी भर जाने के कारण मिट्टी उपलब्ध नहीं हो पाती है मिट्टी को बाहर से मंगाना पड़ता है जो कि काफी महंगी है पड़ती है
मिट्टी के बर्तन देखने के लिए तरसेंगे लोग
वह दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढ़ी मिट्टी से बने बर्तनों को देखने के लिए तरसेंगे उनको मिट्टी के बर्तनों के बारे में पता ही नहीं होगा की मिट्टी के बर्तन कैसे देखते थे अगर हमें अपनी पुरानी परंपराओं को जिंदा रखना है तो इस बार दीपावली में मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करें ताकि हमारी परंपराएं जीवित रह सके व पर्यावरण भी बचाया जा सके और बर्तन बनाने वाले कारीगरों को रोजगार मिल सके।